बछौर गाय: बिहार की दुर्लभ नस्ल, जो खेती और दूध उत्पादन में बेमिसाल है

बछौर गाय की विशेषताएँ

  • इस नस्ल की गाय सफेद से लेकर ग्रे रंग के होते हैं और उनकी नाक व पलकें काली होती हैं।  
  • बछौर गाय का शरीर छोटा, कसा हुआ और मध्यम आकार का होता है, और कंधे के पास उभार मध्यम आकार का होता है साथ ही चेहरा छोटा, माथा चौड़ा और सपाट या थोड़ा उभरा होता है।
  • इस नस्ल की आँखें बड़ी और उभरी हुई होती हैं, और कान मध्यम आकार के और झुके हुए होते हैं। नाक काली या भूरी होती है और पलकों का रंग नाक के रंग के अनुसार काला या सफेद होता है।
  • सींग छोटे और मोटे होते हैं, जो बाहर, ऊपर और नीचे की ओर मुड़े होते हैं। पीठ सीधी, पेट गोल, कंधे मांसल और गर्दन छोटी होती है।
  • गला मध्यम आकार का और थन छोटा व कुंडा के आकार का होता है।
  • बछौर गाय की टाँगें छोटी और पतली, खुर कोमल लेकिन मजबूत और अच्छी तरह से आकार वाले होते हैं। नाभि और शरीर का निचला हिस्सा हल्का और शरीर के पास होता है।
  • पूंछ छोटी और मोटी होती है, जिसमें काली या सफेद पूंछ का झब्बा होता है, जो हॉक तक पहुँचता है।

    बछौर गाय का औसत दूध उत्पादन कितना है?

    बछौर गाय का औसत दूध उत्पादन प्रति ब्यात (लैक्टेशन) 225-630 किलोग्राम होता है, जो 254 दिनों से अधिक समय तक चलता है, और दूध में औसतन 5% वसा होती है। 

    इस नस्ल के नर की औसत लंबाई 116 सेमी और मादा की 110 सेमी होती है। नर की औसत छाती की माप 150 से.मी. और मादा की 140 से.मी. होती है।

    नर का औसत वजन 245 किलोग्राम और मादा का 200 किलोग्राम होता है।

    कृषि कार्यों में भी किया जाता है बछौर गाय का इस्तेमाल  

    बछौर नस्ल के पशुओं को व्यापक प्रबंधन प्रणाली के तहत पाला जाता है। इनके बैल कृषि कार्यों के लिए उपयोगी होते हैं और किसानों के लिए अनिवार्य होते हैं।

    यह भारी कार्यशील पशु शक्ति अधिकांश किसानों के लिए पर्यावरण अनुकूल, सस्ते और स्थायी ऊर्जा स्रोत के रूप में काम करता है।  

    हालांकि यह एक दूध और काम करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली नस्ल है, लेकिन अन्य भारतीय कामकाजी नस्लों की तुलना में इस नस्ल की गायें अधिक दूध देती हैं।

    इनके बैल लंबे समय तक बिना रुके काम कर सकते हैं और इनका उपयोग परिवहन और कृषि कार्यों के लिए किया जाता है।

    19वीं शताब्दी के प्रारंभ में, जब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन था, तब यह नस्ल बिहार में बहुत लोकप्रिय थी।

    इस नस्ल की संख्या में निरंतर गिरावट हो रही है, और इस नस्ल को बचाने के लिए तत्काल संरक्षण उपाय किए जाने की आवश्यकता है।